रविवार, 22 सितंबर 2013

नाविक की नाव



    कभी गाँव में सांग हुआ था तो उसके कलाकार ने एक कहानी कही थी। कहानी यूँ थी कि हिन्दू , सिख , मुसलमान और इसाई चार धर्मलाव्म्बी मित्र एक साथ व्यापार को चल दिए। रास्ते में एक नदी पड़ी। वह
नाविक के पास गए और नदी पार चलने को कहा। नाविक ने कहा नाव में छेद है। एक बार में एक ही जा पायेगा। नदी पार जाकर नाव का पानी निकालूँगा और फिर वापस आ जाऊंगा। पहले सिख गया। नदी के बीच पहुंचा तो नाव में पानी काफी भर आया। नाविक ने कहा अपने वाहे गुरु को स्मरण करलो अन्यथा डूब गए समझो। वाहे गुरु की कृपया से सिख बंधू पार हो गए। फिर मुस्लमान और उसके बाद इसाई भी अपने अल्लाह और गॉड को स्मरण करके पार हो गए। अब बारी हिन्दू भाई की थी। नाविक उसे लेकर नदी के बीच पहुंचा तो नाव में पानी भरने लगा। हिन्दू भाई कभी राम को पुकारता। कभी शिव ,विष्णु , हनुमान जी को। कुल मिलाकर उसने बहुत से देवताओं को पुकारा मगर बेचारे की नाव डूब ही गई। ना नाविक बचा और ना ही वह खुद।
     कुछ यही स्थिति अपने समुदाय की है। हम भिन्न - भिन्न नामों के साथ एकजुटता का सुर अलापते हैं। कभी हम कश्यप का राग अलापेंगे , कभी मांझी, निषाद , धीमर ,कहार। मगर उस तथ्य को तलाशने का प्रयत्न
नहीं करते जो हमारी नैया पार लगा सके। हम हाय तौबा बहुत मचाएंगे। मगर जब लक्ष्य की तरफ अग्रषर होने का समय आता है तो हमारी मै फलाना तू ढीमका, मै ऊँचा तू नीचा की कहानी फिर शुरू हो जाती है। हम यहीं लड़ मर जाते हैं और लक्ष्य कभी मिलता ही नहीं। हम एकसूत्र में बंधने की लालसा रखते हुए भी श्रेष्ठता का लबादा ओढ़कर बैठ जाते हैं। यह हमारी विफलता का बहुत बड़ा कारण है

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