रविवार, 22 सितंबर 2013

धींवर और राजपूत

      धींवर जाति सहित कुछ और उपजातियां जो कश्यप शीर्षक का प्रयोग करती हैं, उनमे से अधिकांश कश्यप शीर्षक के आगे " राजपूत " शब्द लगते हैं। उनके द्वारा राजपूत शब्द लगाना केवल स्ववं की जातिगत आताम्ग्लानी को दूर करना मात्र है। वास्तविकता यह है कि इन जातियों का "राजपूत" होने से दूर -दूर तक कोई एताहासिक सम्बन्ध नहीं है।   कौन थे राजपूत ?
 
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   राजपूत संस्कृत शब्द "राजपुत्र " का बिगड़ा हुआ रूप है। यह शब्द राजकुमार या राजवंश का सूचक था। शने : शने:छत्रिय वर्ग राजपूत नाम से प्रसिद्ध हो गया।
दरअसल प्राचीन समाज के मध्यकालीन समाज में बदलने के पीछे राजाओं द्वारा चलाई गई भूमि अनुदान की प्रथा थी। वेतन और पारिश्रमिक के स्थान पर भूमि अनुदान के नियम बन गए थे। इसमें राजाओं को यह सुविधा थी कि करों की वसूली करने और शांति व्यवस्था बनाये रखने का भार अनुदान प्राप्त करने वालों के ऊपर चला जाता था। परन्तु इससे राजा की शक्ति घटने लगी। उस समय ऐसे ऐसे इलाके बन गए जो राजकीय नियंत्रण से परे थे। इन सबके फलस्वरूप राजा के प्रभुत्व छेत्र को हड़पते हुए इन्ही भू स्वामियों ने खुद को राजपूत कहना शुरू कर दिया।

       राजपूतों से सम्बंधित कहानी
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      राजपूतों से सम्बन्ध में एक कहानी यह भी है कि जब विश्वामित्र ने वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु गाय चुरा ली तो वशिष्ठ ने गाय प्राप्त करने के लिए आबू पर्वत में यघ किया। उनके तप से एक नायक उत्पन्न हुआ। इस नायक ने विश्वामित्र को हराकर कामधेनु वशिष्ठ को सौंप दी। वशिष्ट ने उस नायक को परमार कहा। परमार के वंशज राजपूत कहलाये। इन वंशजो में परमार , चालुक्य, चौहान और प्रतिहार थे।
         इन्ही राजपूतों ने जिनमे चंदेल थे , जैन, विष्णु ,शिव ,को समर्पित कई मंदिर बनवाये। जिनमे खुजराहो का कंदरिया महादेव मंदिर अति प्रसिद है। गंग वंश के नरसिम्हा प्रथम ने कोर्णाक का सूर्य मंदिर बनवाया। राजपूतों के इसी काल में नाटक, काव्य एवं ग्रन्थ लिखे गए। जिनमे राजशेखर का बाल रामायण,भारवि का किरातार्जुन, माघ का शिशुपाल वध ,कल्हण का रजतरंगनी और चंदरबरदाई का प्रथ्वीराज रासो प्रमुख है। इतिहास नहीं कहता की धींवर और उसकी उपजातियों का राजपूत होने से कोई निकट का कोई सम्बन्ध भी रहा होगा।

नाविक की नाव



    कभी गाँव में सांग हुआ था तो उसके कलाकार ने एक कहानी कही थी। कहानी यूँ थी कि हिन्दू , सिख , मुसलमान और इसाई चार धर्मलाव्म्बी मित्र एक साथ व्यापार को चल दिए। रास्ते में एक नदी पड़ी। वह
नाविक के पास गए और नदी पार चलने को कहा। नाविक ने कहा नाव में छेद है। एक बार में एक ही जा पायेगा। नदी पार जाकर नाव का पानी निकालूँगा और फिर वापस आ जाऊंगा। पहले सिख गया। नदी के बीच पहुंचा तो नाव में पानी काफी भर आया। नाविक ने कहा अपने वाहे गुरु को स्मरण करलो अन्यथा डूब गए समझो। वाहे गुरु की कृपया से सिख बंधू पार हो गए। फिर मुस्लमान और उसके बाद इसाई भी अपने अल्लाह और गॉड को स्मरण करके पार हो गए। अब बारी हिन्दू भाई की थी। नाविक उसे लेकर नदी के बीच पहुंचा तो नाव में पानी भरने लगा। हिन्दू भाई कभी राम को पुकारता। कभी शिव ,विष्णु , हनुमान जी को। कुल मिलाकर उसने बहुत से देवताओं को पुकारा मगर बेचारे की नाव डूब ही गई। ना नाविक बचा और ना ही वह खुद।
     कुछ यही स्थिति अपने समुदाय की है। हम भिन्न - भिन्न नामों के साथ एकजुटता का सुर अलापते हैं। कभी हम कश्यप का राग अलापेंगे , कभी मांझी, निषाद , धीमर ,कहार। मगर उस तथ्य को तलाशने का प्रयत्न
नहीं करते जो हमारी नैया पार लगा सके। हम हाय तौबा बहुत मचाएंगे। मगर जब लक्ष्य की तरफ अग्रषर होने का समय आता है तो हमारी मै फलाना तू ढीमका, मै ऊँचा तू नीचा की कहानी फिर शुरू हो जाती है। हम यहीं लड़ मर जाते हैं और लक्ष्य कभी मिलता ही नहीं। हम एकसूत्र में बंधने की लालसा रखते हुए भी श्रेष्ठता का लबादा ओढ़कर बैठ जाते हैं। यह हमारी विफलता का बहुत बड़ा कारण है

कश्यप अथवा " कच्छप "

     यह सत्य है कि कश्यप शब्द की उत्पत्ति मह्रिषी कश्यप से नहीं हुई। मह्रिषी कश्यप ब्रह्मा से सम्बंधित हैं, और ब्राह्मण थे। कश्यप शब्द " कच्छप " का अपभ्रंश या ये कहा जाए कि उसका बिगड़ा स्वरूप है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हमारी पीड़ा अथवा अंधभक्ति आज भी यही है कि हम जिस किसी के नाम के आगे -पीछे कश्यप देखते हैं उसे अपनी जाति से संबद्द कर बैठते हैं। जबकि सत्यता में ऐसा होता नहीं। यदि आप किसी कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण से परिचित होंगे तो वह भी अपने गोत्र का सम्बन्ध मह्रिषी कश्यप से जोड़े मिलेगा। ऐसे में स्थिति हास्यास्पद ही होगी।
    कुछ लोग महात्मा बुद्द से जुड़े लोगों को इसलिए अपना कह जाते हैं कि उनके नाम के आगे पीछे कश्यप है। जबकि सत्यता इसके बिलकुल विपरीत है।बुद्द के गुरु अलार कलाम और ४८३ इसवी में राजगृह में हुई बोद्द संगीति के अध्यक्ष महाकश्यप भी ब्राह्मण थे। ऐसे कुछ लोगों का नाम या तो कश्यप था अथवा वह अपने गोत्र का प्रयोग कर रहे थे। सवाल यह नहीं है कि हमें कश्यप उपनाम का उपयोग करना चाहिए अथवा नहीं। सवाल है कि हमारी जाति कश्यप है अथवा धीवर या अन्य कोई उपजाति। 900 इसवी पूर्व महाभारत काल में भी हमें शुद्र वर्ण में ही रखा गया है। रामायण काल में भी हम शुद्र वर्ण में रहे। यधपि हमारे समुदाय के कुछ जानकार कहते हैं कि हमारे लिए पंचम वर्ण था। रामायण में केवट स्वयं को पापी नीच कहता है। या तो यह कल्पना है अथवा पूर्ण सत्य। गीता में श्री कर्ष्णा वर्ण व्यस्था के विषय में उल्लेख करते हैं।
         मां हि व्यपाश्रित्य येअपि स्यु :पाप्योन्य :।
        स्त्रियों वैश्यास्तथा शुद्रस्तेअपि यान्ति परां गतिम्। ।
 
   स्पष्ट है कि उस काल में आर्यों द्वारा वर्ण व्यस्था ही बदस्तूर जारी थी। धीवर और उसकी उप जातियों में कश्यप उपनाम प्रचालन में था ही नहीं। ना ही इस नाम से कोई जाति वर्ण व्यवस्था में शामिल थी।कई बार हम बोलते हैं कि हिरन्य कश्यप हमारे पूर्वज रहे हैं। मगर जब इतिहास अथवा धर्म ग्रंथों का अध्यन करोगे तो पाओगे कि हिरन्य कश्यप एक नाम मात्र है। हिरन्य की तो कथा ही दूसरी है। हिरण्य का अर्थ होता है -सूत्रात्मा, प्रजापति ,ब्रह्मा। इसलिए उनके नाम के पीछे कश्यप शब्द देखकर उन्हें धीवर जाति से संबद नहीं कर सकते। "कच्छप " को कश्यप शीर्षक के रूप में केवल एकजुटता एवं एक छत के माध्यम रूप में उपयोग करना ही उर्पुक्त है। अन्यथा हमारे पूर्वजों ने जो पहचान हमें प्रदान की है भविष्य में उसे गौण होने में अधिक वक्त नहीं लगेगा। फिर रहा सवाल राजपूत के कार्य करने का। जब अपने समुदाय के पढ़े लिखे और समर्थ लोग स्वतंत्र होने के पश्चात भी समुदाय को ढंग से गौर्वंविंत नहीं कर पाए , उसकी आशा दरिद्र और दासताहीन समुदाय से कैसे की जा सकती थी।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धींवर की जीवन शैली


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धींवर जाति जनसँख्या की दृष्टि से तीसरे अंक की जाति है। प्रान्त के पश्चिमी भाग के लगभग हर गाँव और नगर में धींवर जाति की बहुलता है।  मगर बावजूद इसके धींवर जाति राजनेतिक, आर्थिक,सामाजिक और शेक्षिक दृष्टि से अत्यंत दयनीय हालत में है। जल ,जंगल से संबद्द यह जाति आज भी अस्पर्श्यता जैसा अभिशप्त जीवन जीने को लाचार है।  आधुनिक समाज आज भी कहीं - कहीं इस जाति को "कमीन " जैसे तिरस्क्रत शब्दों से संबोधित करता है। सरकार और आधुनिक समाज द्वारा उपेक्षित धींवर जाति घोर दरिद्रता तथा संघर्ष में जीवन यापन  कर रही है।
 पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तीसरे पायदान की जाति होने के बावजूद इस समुदाय का कोई भी प्रतिनिधित्व राज्य अथवा केंद्र सरकार में नहीं है। इस जाति का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि उपेक्षित रूप से पिछड़े हुए लोग आज भी खानाबदोश जीवन जीते हैं।  तुष्टिकर्ण और धुर्विकर्ण की राजनीती में धींवर जाति को राजनेतिक दलों ने पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है। इस जाति में बहुत ही कम संख्या में जमीन के मालिक हैं अन्यथा अधिकांशत :किसानों के खेतों में बेगार और दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोग हैं।  मजदूरी ही इस जाति का मुख्य काम धंधा है। जून से लेकर सितम्बर तक पुरुष ईख बंधाई करते है जबकि औरते खेतों में बेगार करती है। सरकारी नौकरियों में धींवर जाति का अनुपात नाममात्र  ही है।शरद ऋतू  में यह जाति कोलुह में गन्ने की पिलाई करके गुड-शक्कर बनाने का पैत्रिक धंधा करती है। कोलुह द्वारा गुड -शक्कर बनाना इस जाति के मुख्य व्यवसाय में से एक है। कुछ लोग ईट भट्टों पर गारा से ईट बनाने  का कार्य भी करते हैं।इस्के लिए यह सुदूर स्थानों तक अपने परिवारों को लेकर जाते हैं।  कुछ लोग कोलुह का काम करने के लिए भी इसी तरह दुसरे प्रदेशों तक जाते हैं।
 मुख्यत :हिन्दू धरम में विशवास करने वाला धीवर जाति अपने अराध्य कालू बाबा को मानती है।  यह लोग हिन्दुओं के सभी देवी देवताओं में श्रधा रखती है एवं हिन्दू धर्म के सभी त्यौहार मिलकर मनाती है।  इस जाति के लोग अत्यंत शांत प्रिय माने जाते हैं।  इनके पूर्वजों जहाँ मछली पालन का व्यवसाय करते थे, अब यह व्यवसाय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कम ही धींवर करते हैं।  कुल मिलकर मछली पालन का व्यवसाय करने वालों की स्थिति नगण्य ही है। यधपि भारत सरकार ने धींवर जाति को अतरिक्त पिछड़े वर्ग की सूचि में सूचीबद्द किया हुआ है मगर इस जाति को इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया। यह जाति वर्षों से भारत सरकार से अनुसूचित जाति में प्रविष्ट करने की मांग करती आ रही है मगर अभी तक इनकी मांग पर कोई अनुशंसा नहीं हो पाई है। 

शनिवार, 21 सितंबर 2013

     धींवर... आखिर इस दुर्दशा का जिम्मेवार कौन ???

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धींवर जाति दयनीय परिस्थितियों में संघर्षरत है।
भारत की राज्य सरकारे ही नहीं उच्च स्तर तक को इसका आभास है। हम स्वयं इस सत्यता को मुखरता से स्वीकार करते हैं। मगर छोभ का विषय यह है कि हम इस दुर्दशा के मुख्य पहलुओं की ओर ध्यान कभी नहीं देते। हमारी इस शांत और मेहनती जाति को रसातल तक पहुचाने का जिमीवार कौन है।  क्या हम स्वयं अथवा इसके पीछे कुछ अन्य कारण रहे हैं ? हम कभी वास्तविक पहलुओं का पक्ष अथवा विश्लेषण नहीं करके स्वयं खुद को ही दोषी ठहरा देते हैं। कभी शिक्षा का रोना रोयंगे,कभी एकजुटता को उत्तरदायी बना देंगे। इससे आगे की सोच हम कभी उत्पन्न ही नहीं होने देते। 

 धींवर जाति गरीब क्यों है ??

प्रारम्भ से धींवर जाति का मुख्य व्यवसाय मत्स्य पालन रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि जल और जंगल पर हमारा सामान अधिपत्य रहा होगा। लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि इस जाति की नगरीकरण में नाममात्र की भूमिका रही होगी।  परिणामस्वरूप धींवर जाति ने ग्रामीण प्रष्ठभूमि को ही अपने जीवन का आधार बनाया और रोजी रोटी के अधिकांशत प्रयास जल और जंगलों में तलाशे गए। इन्ही कार्यों के अंतर्गत आर्यों ने इस जाति को शुद्र की श्रेणी में स्थापित कर दिया। यही से इस जाति के पतन की व्यथा आरम्भ होती है। शने: शने: जंगल और जलाशय इत्यादि ख़त्म होने से रोजगार के अवसर समाप्ति के कागार पर पहुँचने लगे। धींवर ने अस्थायी विकल्प के रूप में स्वर्ण जातियों के घरों में पानी भरने एवं  बेगार करने का रास्ता चुना। यह जाति जल से जुडी थी।  इस कारण स्वर्ण जातियों को इनके हाथ का पानी ग्रहण करने और घर में घुसने पर कोई पाबंदी भी नहीं थी। धींवर शांतप्रिय और स्वामिभक्त लोग थे।  विद्रोह करना
अथवा दबंगई वाला कोई भी स्वभाव इनमे प्रकट नहीं होता था। जबकि स्वर्ण जातियों की प्रवर्ती इसके ठीक उलट थी। उन्होंने जंगलों और तालबों पर एकाधिकार करना शुरू कर दिया।  उन्होंने इस जाति के सरल स्वभाव का फायदा उठाकर इन्ही के संसाधनों पर अकारण आधिपत्य किया।  इसके अत्यंत घातक परिणाम हुए।  धींवर जाति के हाथों से उसके मुख्य रोजगार छीन गए और वह  रोजी रोटी के लिए पूर्णतया स्वर्ण जातियों के ऊपर आश्रित हो गया। ना उसके पास मछली पकड़ने के लिए पानी था ना ही अन्न उगाने के लिए जमीन। जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन थी, उसे भी लोग कब्जाने का षड्यंत्र बनाने लगे। दरिद्रता की वास्तविक कथा यही से आरम्भ हुई।         

  धींवर शिक्षा से वंचित क्यों ??

आर्यों ने श्र्ग्वेदिक काल में शूद्रों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा।शूद्रों को वेदों को पढने का कोई अधिकार नहीं था।  केवल सुनने की अनुमति
थी। उन्होंने जो कहानियां पढ़ाई धींवर जाति ने उसका अनुसरण किया। किन्तु आधुनिक युग में प्रवेश के समय इस जाति की उसके कर्मों के संग चली आ रही दरिद्रता शिक्षा में अवरोध बन गई।  परिणाम यह हुआ कि इस जाति के बहुसंख्यक मजदुर अपनी संतानों को शिक्षा से लाभंविंत नहीं कर पाए। जिसके कारण गरीबी और शिक्षा का प्रतिशत गिरता चला गया। रोजगार के लिए न इस जाति के पास जमीन थी और न स्वर्ण जातियों के यहाँ बेगार करने से अतरिक्त दूसरा धधा।  परिणामत यह जाति पिछडती  चली गई।    

 धींवर में किसने प्रगति की

धींवर जाति में सर्वप्रथम उन्नति की सीढियाँ चढ़ने वाले वह लोग रहे स्वर्ण जातियों से जिनका जुड़ाव नाममात्र ही था। इनमे किसान धींवर और नगरों में बसे धींवर तरक्की करने में अधिक सफल रहे। मगर जो गरीब तबका था , वह स्वर्ण जातियों के रहमोकरम पर ही निर्भर रहा। गावों में आज भी यही स्थिति है। अगर गरीब धींवर और समर्थ धींवर का विकास अनुपात किया जाए तो ५:९५ बैठेगा।  अर्थात अगर गरीब धींवर के ५ बालक सफल होते हैं तो समर्थ धींवर के ९५ बालक सफल होंगे।

वह कारण क्या है जो धींवर जाति प्रगति नहीं कर पा रही है

स्वर्ण जातियों की दबंगई आज भी इस जाति पर जारी  है। अपने खेतों में बेगार कराने की परम्परा अभी तक ख़त्म नहीं हो पायी है। स्वर्ण जातियां आज भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि जिसे वह "कमीन" कहते हैं वह उनकी बराबरी करे।  परिणामत उन्होंने इस जाति को इतना भयाक्रांत कर दिया है कि इसमें असुरक्षा की भावना पैदा हो गई है।  इस जाति में जो लड़के पढाई करके नौकरी करना चाहते हैं उनके रास्तों में व्यवधान डालकर यह षड्यंत्र रचने से भी बाज नहीं आते। यही नहीं उनके बुजर्गों एवं  अभिभावकों को नशे की तरफ अगर्सर करके उन्हें पैसा बांटा जाता है।  वह भी मोटे सूद पर। परिणाम यह होता है कि उनके बच्चे शिक्षित हो नहीं पाते और पुन स्वर्ण जातियों की परम्परा का निर्वहन करने लगते हैं। बेगार करने की परम्परा। चुनाव में इस जाति के प्रतिनिधि इसलिए पीछे रह जाते हैं कि स्वर्ण जातियों की दबंगई और उनके कर्ज के चलते वोट उसी प्रतिनिधि को जाते हैं जिसे यह लोग चाहते हैं। इस जाति के संगठन भी  इसीलिए असफल हैं कि इनके पास ना साधन हैं और ना ही स्वर्ण जातियों की दबंगई से लड़ने का कोई शसक्त हथियार।